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नारी का अस्तित्व कहां है?

जब तक स्त्री अपने अस्तित्व की स्पष्ट घोषणा नहीं करती है, तब तक उसे आत्मा उपलब्ध नहीं हो सकती है, तब तक वह छाया ही रहेगी... ‘नारी और क्रांति’, इस संबंध में बोलने का सोचता हूं, तो पहले यही खयाल आता है कि नारी कहां है? नारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। मां का अस्तित्व है, बहन का अस्तित्व है, बेटी का अस्तित्व है, पत्नी का अस्तित्व है, नारी का कोई भी अस्तित्व नहीं है। नारी जैसा कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। नारी की अपनी कोई अलग पहचान नहीं है। नारी का अस्तित्व उतना ही है जिस मात्रा में वह पुरुष से संबधित होती है। पुरुष का संबंध ही उसका अस्तित्व है। उसकी अपनी कोई आत्मा नहीं है। यह बहुत आश्चर्यजनक है! लेकिन यह कड़वा सत्य है कि नारी का अस्तित्व उसी मात्रा और अनुपात में होता है! जिस अनुपात से वह पुरुष से संबंधित होती है। पुरुष से संबंधित नहीं हो तो ऐसी नारी का कोई अस्तित्व नहीं है। और नारी का अस्तित्व ही न हो तो क्रांति की क्या बात करनी है? इसलिए पहली बात यह समझ लेनी जरूरी है कि नारी अब तक अपने अस्तित्व को भी-अपने अस्तित्व को-स्थापित नहीं कर पाई है। उसका अस्तित्व पुरुष के अस्तित्व में लीन है। पुरुष क...

प्रेम में पाप और पुण्य क्या?

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प्रेम और प्रार्थना में उतना ही फर्क है जितना अशुद्ध सोने और शुद्ध सोने में। मगर दोनों ही सोना हैं, यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूं। इस पर मेरा बल है। यही आने वाले भविष्य के मनुष्य के धर्म की मूल भित्ति है... प्रेम यदि पाप है तो फिर संसार में पुण्य कुछ होगा ही नहीं प्रेम पाप है तो पुण्य असंभव है। क्योंकि पुण्य का सार प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। लेकिन तुम्हारे प्रश्न को मैं समझा। तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा यही कहते हैं कि प्रेम पाप है। और वे ऐसी व्यर्थ की बात कहते रहे हैं, लेकिन इन्होंने इतने दिनों से कही है, इतने लंबे अर्से से कही है कि तुम्हें उसकी व्यर्थता, उसका विरोधभास दिखाई नहीं पड़ता। प्रेम को तो वे पाप कहते हैं और प्रार्थना को पुण्य कहते हैं। और तुमने कभी गौर से नहीं देखा कि अगर प्रेम पाप है, तो प्रार्थना भी पाप हो जाएगी। क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही परिशुद्ध रुप है। माना कि प्रेम में कुछ अशुद्धियां हैं, लेकिन पाप नहीं है। सोना अगर अशुद्ध हो तो भी लोहा नहीं है। सोना अशुद्ध हो तो भी सोना है। अशुद्ध होकर भी सोना सोना है। रही शुद्ध करने की बात, सो शुद्ध कर लेंगे। कूड़े-करकट क...

अहंकार और निरहंकार

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अहंकार की बड़ी से बड़ी भूल यह है कि जो अंत में दुख देता है, उसमें प्रारंभ में सुख देखता है। जहां-जहां प्रारंभ में सुख दिखाई पड़े वहां-वहां अंत में तुम पाओगे कि दुख मिलेगा। क्योंकि सुख इतना सस्ता नहीं हो सकता कि प्रारंभ में मिल जाए... मनुष्य ने दो तरह के जीवन-दर्शन जाने हैं। एक जीवन-दर्शन है अहंकार का, एक जीवन-दर्शन है निरहंकारिता का। अहंकार का जीवन-दर्शन अपने आप में परिपूर्ण शास्त्र है। और वैसे ही निरहंकार का जीवन दर्शन की अंतिम उपलब्धि नरक है-अपने आस-पास दुख और पीड़ा का एक साम्राज्य। और निरहंकार जीवन-दर्शन की अंतिम उपलब्धि मोक्ष है-मुक्ति, सच्चिदानंद लेकिन अहंकार का जीवन-दर्शन आश्वासन देता है मोक्ष तक पहुंचाने का, और अहंकार का जीवन-दर्शन सब तरह के प्रलोभन देता है। अहंकार के द्वार पर भी लिखा है स्वर्ग, और अहंकार के आमंत्रण बड़े ही भुलावेपूर्ण हैं। वे ऐसे ही हैं जैसे कोई मछलियां पकड़ने जाता है तो कांटे पर आटा लगा देता है। कोई मछलियों को आटा खिलाने के लिए नहीं; खिलाना तो कांटा है। लेकिन आटे के बिना कांटा मछलियों तक पहुंचेगा नहीं। अहंकार बड़े प्रलोभन देता है; दुख के कांटे पर बड़ा आटा लगा देता है।...

संतोष की सार्थकता, असंतोष की व्यर्थता

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संतोष का तर्क समझो। असंतोष की व्यवस्था समझो। असंतोष की व्यवस्था यह है कि जो मिल गया, वही व्यर्थ हो जाता है। सार्थकता तभी तक मालूम होती है जब तक मिले नहीं। जिस स्त्री को तुम चाहते थे, जब तक मिले न तब तक बड़ी सुंदर। मिल जाए, सब सौंदर्य तिरोहित। जिस मकान को तुम चाहते थे-कितनी रात सोए नहीं थे! कैसे-कैसे सपने सजाए थे!-फिर मिल गया और बात व्यर्थ हो गयी। जो भी हाथ में आ जाता है, हाथ में आते ही से व्यर्थ हो जाता है। इस असंतोष को तुम दोस्त कहोगे? यही तो तुम्हारा दुश्मन है। यह तुम्हें दौड़ाता-सिर्फ दौड़ता है-और जब भी कुछ मिल जाता है, मिलते ही उसे व्यर्थ कर देता है। फिर दौड़ाने लगता है। यह दौड़ाता रहा है जन्मों-जन्मों से तुम्हें। वह जो चौरासी कोटियों में तुम दौडे हो, असंतोष की दोस्ती के कारण दौड़े हो। दस हजार रुपये पास में हैं-क्या है मेरे पास, कुछ भी तो नहीं! लाख हो जाएं तो कुछ होगा! लाख होते ही तुम्हारा असंतोष-तुम्हारा मित्र, तुम्हारा साझीदार-कहेगा, लाख में क्या होता है? ज़रा चारों तरफ देखो, लोगों ने दस-दस लाख बना लिए हैं। अरे मूढ़, तू लाख में ही बैठा है! अब लाख की कीमत ही क्या रही? अब गए दिन लाखों के,...

संघर्ष या समर्पण

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अगर तुम पूरी तरह संघर्ष छोड़ दो तो तुम्हारी वहीं ऊंचाई है, जो परमात्मा की। ऊंचाई का एक ही अर्थ है-निर्भार हो जाना। और अहंकार पत्थर की तरह लटका है तुम्हारे गले में। जितना तुम लड़ोगे उतना ही अहंकार बढ़ेगा जीवन जीने के दो ढंग हैं। एक ढंग है संघर्ष का, एक ढंग है समर्पण का। संघर्ष का अर्थ है, मेरी मर्जी समग्र की मर्जी से अलग। समर्पण का अर्थ है, मैं समग्र का एक अंग हूं। मेरी मर्जी के अलग होने का कोई सवाल नहीं। मैं अगर अलग हूं, संघर्ष स्वाभाविक है। मैं अगर इस विराट के साथ एक हूं, समर्पण स्वाभाविक है। संघर्ष लाएगा तनाव, अशांति, चिंता। समर्पणः शून्यता, शांति, आनंद और अंततः परमज्ञान। संघर्ष से बढ़ेगा अहंकार, समर्पण से मिटेगा। संसारी वही है जो संघर्ष कर रहा है। धार्मिक वही है जिसने संघर्ष छोड़ा और समर्पण किया। मंदिर, गुरुद्वारे, मस्जिद जाने से धर्म का कोई संबंध नहीं। अगर तुम्हारी वृत्ति संघर्ष की है, अगर तुम लड़ रहे हो परमात्मा से, अगर तुम अपनी इच्छा पूरी कराना चाहते हो-चाहे प्रार्थना से ही सही, पूजा से ही सही-अगर तुम्हारी अपनी कोई इच्छा है, तो तुम अधार्मिक हा। जब तुम्हारी अपनी कोई चाह नहीं, जब उसकी चा...

वास्तविक धर्म क्या है?

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सच्ची धार्मिकता को मसीहाओं, उद्धारकों, पवित्र-ग्रंथों, पादरियों, पोपों और चर्चों की कोई आवश्यकता नही हैं। क्योंकि धार्मिकता तुम्हारे हृदय की खिलावट है। वह तो स्वयं की आत्मा के, अपनी ही सत्ता के केन्द्र बिंदु तक पहुंचने का नाम है। और जिस क्षण तुम अपने अस्तित्व के ठीक केंद्र पर पहुंच जाते हो, उस क्षण सौंदर्य का, आनंद का, शांति का और आलोक का विस्फोट होता है। तुम एक सर्वथा भिन्न व्यक्ति होने लगते हो। तुम्हारे जीवन में जो अंधेरा था वह तिरोहित हो जाता है, और जो भी गलत था वह विदा हो जाता है। फिर तुम जो भी करते हो वह परम सजगता और पूर्ण समग्रता के साथ होता है। मैं तो बस एक ही पुण्य जानता हूं और वह हैःसजगता। काश पूरी धरती पर यदि धार्मिकता फैल सके तो सारे धर्म विदा हो जाएंगे! और यह मनुष्य जाति के लिए एक महान वरदान होगा, जब मनुष्य केवल मनुष्य होगा-न ईसाई, न मुसलमान, न हिंदू। ये विभाजन, ये सीमाएं, ये भेद पूरे इतिहास में हजारों-हजारों युद्धों के कारण बने हैं। यदि तुम पीछे लौटकर मनुष्य के अतीत पर नजर डालो तो तुम्हें यह कहना ही पड़ेगा कि अतीत में हम विक्षिप्त ढंग से जीते रहे हैं। परमात्मा के नाम पर...

धर्म और विज्ञानः एक बीज तो दूसरा वृक्ष!

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विज्ञान का तो धर्म से विरोध हो भी सकता है, लेकिन धर्म का विज्ञान से विरोध असंभव है। बाह्य का आंतरिक विरोध हो सकता है,लेकिन आंतरिक के लिए तो बाह्य है ही नहीं। पुत्र का मां से विरोध हो सकता है, लेकिन मां के लिए तो पुत्र का होना उसका स्वयं का होना ही है धर्म परिभाष्य नहीं है। जो बाह्य है उसकी परिभाषा हो सकती है। जो आंतरिक है उसकी परिभाषा नहीं हो सकती है। वस्तुतः जहां से परिभाषा शुरू होती है वहीं से विज्ञान शुरू हो जाता है, क्योंकि वहीं से बाह्य शुरू जाता है। विज्ञान है शब्द में, धर्म है शून्य में। क्योंकि परिधि है अभिव्यक्ति और केंद्र है अज्ञात और अदृश्य और अप्रगट। वृक्ष और बीज की भांति ही वे हैं। विज्ञान वृक्ष है, धर्म बीज है। विज्ञान को जाना जा सकता है धर्म को जाना नहीं जा सकता है, लेकिन धर्म में हुआ जा सकता है और धर्म में जिया जा सकता है। विज्ञान ज्ञान है, धर्म जीवन है। इसलिए विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती है। विज्ञान है ज्ञात और ज्ञेय की खोज। धर्म अज्ञात है और अज्ञेय में निम्मजन। विज्ञान है पाना, धर्म है मिटना। इसलिए विज्ञान बहुत हैं, लेकिन धर्म एक ही है...