नारी का अस्तित्व कहां है?


जब तक स्त्री अपने अस्तित्व की स्पष्ट घोषणा नहीं करती है, तब तक उसे आत्मा उपलब्ध नहीं हो सकती है, तब तक वह छाया ही रहेगी...

‘नारी और क्रांति’, इस संबंध में बोलने का सोचता हूं, तो पहले यही खयाल आता है कि नारी कहां है? नारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। मां का अस्तित्व है, बहन का अस्तित्व है, बेटी का अस्तित्व है, पत्नी का अस्तित्व है, नारी का कोई भी अस्तित्व नहीं है। नारी जैसा कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। नारी की अपनी कोई अलग पहचान नहीं है। नारी का अस्तित्व उतना ही है जिस मात्रा में वह पुरुष से संबधित होती है। पुरुष का संबंध ही उसका अस्तित्व है। उसकी अपनी कोई आत्मा नहीं है।

यह बहुत आश्चर्यजनक है! लेकिन यह कड़वा सत्य है कि नारी का अस्तित्व उसी मात्रा और अनुपात में होता है! जिस अनुपात से वह पुरुष से संबंधित होती है। पुरुष से संबंधित नहीं हो तो ऐसी नारी का कोई अस्तित्व नहीं है। और नारी का अस्तित्व ही न हो तो क्रांति की क्या बात करनी है?

इसलिए पहली बात यह समझ लेनी जरूरी है कि नारी अब तक अपने अस्तित्व को भी-अपने अस्तित्व को-स्थापित नहीं कर पाई है। उसका अस्तित्व पुरुष के अस्तित्व में लीन है। पुरुष का एक हिस्सा है उसका अस्तित्व।

बर्नार्ड शा ने एक छोटी सी किताब लिखी। उस किताब का नाम बहुत अजीब है और जब पहली दफे वह किताब प्रकाशित हुई तो सारे लोग हैरान हुए। उस किताब का नाम हैः इंटेलिजेंट वीमेन्स गाइड टु सोशलिज्म। बुद्धिमान स्त्री के लिए समाजवाद की पथ-प्रदर्शिका।

लोग बड़े हैरान हुए। लोगों ने पूछा कि स्त्री के लिए? क्या समाजवाद का पथ-प्रदर्शन स्त्री के लिए जरूरी है, पुरुष के लिए नहीं? आपको नाम रखना चाहिए थाः इंटेलिजेंट मेंन्स गाइड टु सोशलिज्म।

बर्नाड शा ने कहा कि मेन्स लिखने से स्त्रियां उसमें सम्मिलित हो जाती हैं, लेकिन वीमेन्स लिखने से पुरुष उसमें सम्मिलित नहीं होते? यह बड़ी हैरानी की बात है। बर्नार्ड शा ने कहा, अगर हम कहें मनुष्य, तो स्त्रियां सम्मिलित हैं। और अगर हम कहें नारी, तो फिर मनुष्य सम्मिलित नहीं है, पुरुष सम्मिलित नहीं है?

स्त्री पुरुष की छाया से ज्यादा अस्तित्व नहीं जुटा पाई है। इसलिए जहां पुरुष होता है, स्त्री वहां है। लेकिन जहां छाया होती है वहां थोड़े ही पुरुष को होने की जरूरत है!

स्त्री का विवाह हो, तो वह श्रीमती हो जाती है, मिसेज हो जाती है, पुरुष के नाम की छाया रह जाती है, मिसेज फलानी हो जाती है। लेकिन इससे उलटा नहीं होता कि स्त्री के नाम पर पुरुष बदल जाता हो। अगर चंद्रकांत मेहता नाम है पुरुष का, तो स्त्री का कुछ भी नाम हो, वह श्रीमती चंद्रकांत मेहता हो जाती है। लेकिन अगर स्त्री का नाम चंद्रकला मेहता है तो ऐसा नहीं होता कि पति श्रीमान चंद्रकला मेहता हो जाते हों। ऐसा नहीं होता। ऐसा होने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि स्त्री छाया है, उसका कोई अपना अस्तित्व थोड़े ही है।

श्शास्त्र कहते हैं, जब स्त्री बालपन में हो तो पिता उसकी रक्षा करें; जवान हो, पति रक्षा करे, बूढ़ी हो जाए, बेटा रक्षा करे। सब पुरुष उसकी रक्षा करे, क्योंकि उसका कोई अपना अस्तित्व नहीं है। रक्षितत्व तो ही वह है, अन्यथा नहीं है।

यह क्या मूढ़ता है? स्त्री अब तक अपने अस्तित्व की घोषणा ही नहीं कर पाई है। इसलिए पहला क्रांति का सूत्र तो यह है कि स्त्री अपने अस्तित्व की स्पष्ट घोषणा करे। वह है। उसका अपना होना है-पुरुष से बहुत पृथक, बहुत भिन्न। उसके होने का आयाम, उसके होने की दिशा और डायमेंशन बहुत अलग है। वह पुरुष की छाया नही है, उसका अपनी हैसियत से भी होना है।

और यह भी ध्यान रहे, जब तक स्त्री अपने अस्तित्व की स्पष्ट घोषणा नहीं करती है, तब तक उसे आत्मा उपलब्ध नहीं हो सकती है, तब तक वह छाया ही रहेगी।

मैंने सुना है कि जर्मनी में ऐसी एक कथा है, कि एक आदमी पर देवता नाराज हो गए और उन्होंने उसे अभिशाप दे दिया कि आज से तेरी छाया खो जाएगी, आज से तेरी छाया नहीं बनेगी। तू धूप में चलेगा तो तेरी कोई छाया नहीं बनेगी, कोई शैडो नहीं बनेगी।

उस आदमी ने कहा, इससे मेरा क्या बिगड़ जाएगा? यह तुम अभिशाप देते हो, ठीक है, लेकिन मेरा हर्ज क्या हो जाएगा इससे?

देवताओं ने कहा, वह तुझे पीछे पता चलेगा।

और घर आते ही उस आदमी को पता चला कि बहुत मुश्किल हो गई। जैसे ही लोगों को पता चला कि उसकी छाया नहीं बनती है, लोगों ने उसका साथ छोड़ दिया। पत्नी ने उससे हाथ जोड़ लिए कि क्षमा करो! बेटों ने कहा, माफ करो! गांव के लोगों ने कहा, दूर रहो! यह आदमी खतरनाक है, इसकी छाया नहीं बनती।

धीरे-धीरे गांव में वह एक अछूत हो गया, घर के लोग भी दरवाज बंद करने लगे, मित्र रास्ता छोड़ कर जाने लगे, लोगों ने पहचानना बंद कर दिया। आखिर सारे गांव की पंचायत ने कहा, इस आदमी को निकाल बाहर करो। इस आदमी को कोई महारोग लग गया है, इसकी छाया नहीं बनती, ऐसा कभी सुना है? आखिर गांव के लोगों ने उसे कोढ़ी की तरह गांव के बाहर निकाल दिया। वह आदमी चिल्लाया कि मेरी छाया मिट गई है तो हर्ज क्या है? लेकिन लोगों ने कहा कि छाया मिट गई, इसका मतलब है कि कोई न कोई महारोग तेरे पीछे लग गया। वह बहुत चिल्लाने लगा कि मैं तो पूरा का पूरा हूं, मेरी छाया भर मिट गई है। लेकिन किसी ने उसकी सुनी नहीं।

पता नहीं ऐसा कभी हुआ या नहीं, लेकिन स्त्री के मामले में बिल्कुल उल्टी बात हो गई। उसकी आत्मा तो मिट गई है, वह सिर्फ छाया रह गई है। और छाया मिटने से एक आदमी इतनी मुसीबत में पड़ गया हो तो अगर नारियों की पूरी जाति की आत्मा मिट गई हो और वे सिर्फ छाया रह गई हों, तो उनकी कठिनाई का अंदाज लगाना बहुत मुश्किल है।

लेकिन पुरुषों को कोई चिंता क्या हो सकती है कि वे अंदाज लगाएं उस कठिनाई का? उन्हें जरूरत भी क्या हो सकती है? पुरुषों के यह हित में है कि स्त्री की कोई आत्मा न हो। क्योंकि जिनका भी हमें शोषण करना होता है, अगर उनके पास आत्मा हो तो विद्रोह का डर होता है। पुरुष की जाति हजारों वर्षों से नारी का वर्गीय शोषण कर रही है। उसके यह हित में है कि नारी के पास कोई व्यक्तित्व, कोई आत्मा न हो। क्योंकि जिस दिन नारी के पास अपनी आत्मा होगी, उसी दिन बगावत की यात्रा शुरू हो जाएगी, विद्रोह शुरू हो जाएगा।

गरीब और अमीर के बीच जो शोषण है, उससे भी ज्यादा खतरनाक, उससे भी ज्यादा लंबा शोषण पुरुष और नारी के बीच में है। पुरुष नहीं चाहेगा। और नारियों के पास कोई आत्मा नहीं है कि वे सोंचे भी, विचारें भी, बगावत का कोई स्वर वहां से पैदा हो। आत्मा ही खो गई है। लेकिन यह घटना घटे इतना लंबा समय हो गया है कि अब किसी को पता भी नहीं चलता कि यह घटना घट चुकी है। यह याद में भी नहीं आता। हम जीए चले जाते हैं।

जैसे हजारों वर्षों तक शूद्रों को समझा दिया था कि तुम शूद्र हो, तो हजारों वर्षों तक धीरे-धीरे वे भूल ही गए कि वे आदमी हैं। वैसी ही स्थिति स्त्री के साथ हो गई है। वह सिर्फ छाया है पुरुष की, पुरुष के पीछे होने में उसका हित है, पुरुष से भिन्न और पृथक खड़े होने में उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि बिना आत्मा के भी नारी के जीवन में कोई आनंद, कोई मुक्ति, कोई सृजनात्मकता, कोई अभिव्यक्ति, उसके जीवन में कोई सुगंध हो सकती है?

ऐसे धर्म हैं जो कहते हैं कि नारी के लिए मोक्ष नहीं है। यह तो आपको पता ही होगा कि मस्जिद में नारी के लिए प्रवेश नही है। मस्जिद में नारी के लिए प्रवेश नहीं है। आश्चर्यजनक है! मस्जिद सिर्फ पुरुषों के लिए है? नारी की छाया भी मस्जिद के भीतर नहीं पड़ी है। मोक्ष में नारी के लिए प्रवेश नहीं हैः ऐसे धर्म हैं। ऐसे धर्म हैं जो घोषणा करते हैः नारी नरक का द्वार है। ऐसे धर्म हैं जिनके श्रेष्ठतम शास्त्र भी नारी के लिए अभद्रतम शब्दों का उपयोग करते हैं। और भी आश्चर्य की बात है कि जिन धर्मों ने, जिन धर्मगुरुओं ने, जिन साधु-संन्यासियों और महात्माओं ने नारी को आत्मा मिलने में सबसे ज्यादा बाधा दी है, नारी अजीब पागल है, उन साधु-संन्यासियों और महात्माओं को पालने का सारा ठेका नारियों ने ले रखा है।

ये मंदिर और मस्जिद नारी के ऊपर चलते हैं। साधु और संन्यासी नारी के शोषण पर जीते हैं और उनकी ही सारी की सारी करतूत और लंबा षड्यंत्र है कि नारी को अस्तित्व नहीं मिल पाता। जो रोज-रोज घोषणा करते हैं कि नारी नरक का द्वार है, नारी उन्हीं के चरणों में-दूर से, पास से छू तो नहीं सकती, क्योंकि छूने की मनाही है-दूर से नमस्कार करती रहती है, भीड़ लगाए रहती है।

अभी मैं बंबई था। एक महिला ने मुझे आकर कहा कि एक संन्यासी का, एक महात्मा का प्रवचन चलता है। हजारों लोग सुनने इकट्ठे होते हैं, लेकिन कोई नारी उनका पैर नहीं छू सकती। लेकिन एक दिन एक नारी ने भूल से उनका पैर छू दिया। महात्मा ने सात दिन का उपवास किया प्रायश्चित्त में। और इस प्रायश्चित्त का परिणाम यह हुआ कि नारियों की, लाखों नारियों की संख्या उनके दर्शन के लिए इकट्ठी हो गई कि बहुत बड़े महात्मा हैं।

बेवकूफी की भी कोई सीमाएं होती है! एक नारी को नहीं जाना चाहिए था फिर वहां और नारी को विरोध करना चाहिए था कि वहां कोई भी नहीं जाएगा। लेकिन नारी बड़ी प्रसन्न हुई होगी कि बड़ा पवित्र आदमी है यह। नारी को छूने से सात दिन का उपवास करके प्रायश्चित्त करता है, महान आत्मा है यह।

नारियों के मन में भी यह ख्याल पैदा कर दिया है पुरुषों ने कि वे अपवित्र हैं, और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया है, उसे वे मान कर बैठ गई हैं।

कितने आश्चर्य की बात है, ये जो महात्मा जिनके पैर छूने से सात दिन का इन्होंने उपवास किया, ये नारी के पेट में नौ महीने रहे होंगे, और अगर अपवित्र होना है तो हो चुके होंगे। अब बचना बहुत मुश्किल है अपवित्रता से। और एक नारी की गोद में बरसों बैठे रहे होंगे-खून उसका है, मांस उसका है, हड्डी उसकी है, मज्जा उसकी है, सारा व्यक्तित्व उसका है-और उसी के छूने से ये सात दिन का इन्हें उपवास करना पड़ता है, क्योंकि वह नरक द्वार है।

साधु-संन्यासियों से मुक्त होने की जरूरत है नारी को। और जब तक वह साधु-संन्यासियों के खिलाफ उसकी सीधी बगावत नहीं होती और वह यह घोषणा नहीं करती कि नारी को नरक कहने वाले लोगों को कोई सम्मान नहीं मिल सकता है, नारी को अपवित्र कहने वाले लोगों की के लिए कोई आदर नहीं मिल सकता है-सीधा विद्रोह और बगावत चाहिए-तो नारी की आत्मा की यात्रा की पहली सीढ़ी पूरी होगी।

जिन-जिन देशों में धर्मों का जितना ज्यादा प्रभाव है, उन-उन देशों में नारी उतनी ही ज्यादा अपमानित और अनादृत है। यह बड़ी हैरानी की बात है! धर्म का प्रभाव जितना कम हो रहा है, नारी का सम्मान उतना बढ़ रहा है। धर्म का जितना ज्यादा प्रभाव, नारी का उतना अपमान। यह कैसा धर्म है? होना तो उल्टा चाहिए कि धर्म का प्रभाव बढ़े तो हो सबका सम्मान बढ़े, सबकी गरिमा बढ़े।
-ओशो
पुस्तकः नारी और क्रांति
प्रवचन नं. 5 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है

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