धर्म और विज्ञानः एक बीज तो दूसरा वृक्ष!


विज्ञान का तो धर्म से विरोध हो भी सकता है, लेकिन धर्म का विज्ञान से विरोध असंभव है। बाह्य का आंतरिक विरोध हो सकता है,लेकिन आंतरिक के लिए तो बाह्य है ही नहीं। पुत्र का मां से विरोध हो सकता है, लेकिन मां के लिए तो पुत्र का होना उसका स्वयं का होना ही है


धर्म परिभाष्य नहीं है। जो बाह्य है उसकी परिभाषा हो सकती है। जो आंतरिक है उसकी परिभाषा नहीं हो सकती है। वस्तुतः जहां से परिभाषा शुरू होती है वहीं से विज्ञान शुरू हो जाता है, क्योंकि वहीं से बाह्य शुरू जाता है। विज्ञान है शब्द में, धर्म है शून्य में। क्योंकि परिधि है अभिव्यक्ति और केंद्र है अज्ञात और अदृश्य और अप्रगट। वृक्ष और बीज की भांति ही वे हैं। विज्ञान वृक्ष है, धर्म बीज है। विज्ञान को जाना जा सकता है धर्म को जाना नहीं जा सकता है, लेकिन धर्म में हुआ जा सकता है और धर्म में जिया जा सकता है। विज्ञान ज्ञान है, धर्म जीवन है। इसलिए विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती है।

विज्ञान है ज्ञात और ज्ञेय की खोज। धर्म अज्ञात है और अज्ञेय में निम्मजन। विज्ञान है पाना, धर्म है मिटना। इसलिए विज्ञान बहुत हैं, लेकिन धर्म एक ही है। इसलिए ही विज्ञान विकासशील, किंतु धर्म शाश्वत है।

जीवन की परिधि की ओर जाने से तो केंद्र से दूर निकल जाते हैं। लेकिन एक बड़ा आश्चर्य है कि जो केंद्र की ओर जाता है वह परिधि से दूर नहीं निकलता है, उल्टे परिधि और निकट आती जाती है। और ठीक केंद्र पर पहुंचने पर तो परिधि विलीन हो जाती है, क्योंकि केंद्र भी विलीन हो जाता है। परिधि पर परिधि भी है और केंद्र भी है। केंद्र पर न केंद्र है, न परिधि है। आंतरिक तो अंततः उसका द्वार बन जाता है जो कि न आंतरिक है, न बाह्य है।

इसलिए मैं कहता हूं कि विज्ञान का तो धर्म से विरोध हो भी सकता है, लेकिन धर्म का विज्ञान से विरोध असंभव है। बाह्य का आंतरिक विरोध हो सकता है, लेकिन आंतरिक के लिए तो बाह्य है ही नहीं। पुत्र का मां से विरोध हो सकता है, लेकिन मां के लिए तो पुत्र का होना उसका स्वयं का होना ही है।

धर्म विज्ञान के विरोध में नहीं हो सकता है, और जो हो वह धर्म नहीं है। धर्म संसार के विरोध में भी नहीं है। संसार धर्म के विरोध में हो सकता है, लेकिन धर्म संसार के विरोध में नहीं हो सकता है। धर्म सर्व अविरोध है और इसलिए तो धर्म मुक्ति है। जहां विरोध है, वहां बंधन है। और जहां विरोध है, वहां अशांति है, वहां अग्नि है। वह बूढ़ी हृदय सही तो चिल्लाती थी-‘मेरा घर जल रहा है, मेरे जीवन में आग लगी है’।

और लोग पहुंचे थे विज्ञान की बाल्टियां लेकर, बाह्य का जल लेकर, तो वह हंसने लगी थी। वह आज भी हंस रही है, क्योंकि जीवन में आग आज भी लगी है, रात्रि आज भी अमावस की है। गांव आज भी सोते से जाग पड़ा है, पड़ोसी आज भी दौड़े चले आये हैं, लेकिन फिर वे ही बातें पूछ रहे हैं। वे पूछते हैं, आग कहां है? दिखायी तो नहीं देती, बताओ, हम उसे बुझा दें, हम पानी की बाल्टियां ले आये हैं। हर रात्रि यही हो रहा है, वही बात हर रात दुहरती है।

लेकिन आग है भीतर और पानी है बाहर का। अब आग बुझे कैसे? आग और बढ़ती ही जाती है और हर आदमी उसमें झुलसता ही जा रहा है। यह भी हो सकता है कि आग के चरम उत्ताप में आदमी परिवर्तित हो जाये और उसकी नींद टूट जाये। और इस आग से वह और भी निखरा हुआ स्वर्ण होकर बाहर निकले। यह स्मरण रहे कि विज्ञान आग को नहीं बुझा सका है, उल्टे विज्ञान की सभी खोजें आग को और प्रज्वलित करने में ही सहयोगी हो गयी हैं।

अज्ञान के हाथों में शक्ति आत्मघाती हो उठे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? मुझे तो पिछले दो महायुद्ध में मनुष्यता द्वारा सार्वलौकिक आत्मघात की पूर्ण तैयारियां ही मालूम पड़ते हैं। दो महायुद्धों में शायद दस करोड़ लोगों की हत्या हुई है और तैयारी आगे भी जारी है। तीसरा महायु़द्ध होगा अंतिम।

इसलिए नहीं कि फिर मनुष्य युद्ध नहीं करेगा, वरन इसलिए कि फिर मनुष्य यु़द्ध करने को बचेगा ही नहीं।

स्वयं को नष्ट करने की मनुष्यता की आतुरता अकारण भी नहीं है। शायद बाह्य की एकांगी खोज से जो विफलता हाथ आई है, उसके विवाद में ही आत्मघात का यह विराट आयोजन चल रहा है। मनुष्य के हाथ सारी दौड़-धूप के बाद भी खाली के खाली हैं। जीवन ही रिक्त, अर्थहीन और खाली है। सिंकदर ने मरते समय ही जाना कि उसके हाथ खाली हैं, इसलिए मरने की जिम्मेदारी उसने स्वयं अपने ऊपर नहीं ली। शायद अब मनुष्य ने जीते जी जो यह जान लिया है, इसलिए वह स्वयं ही अपने को मारने का तैयार है। वह मृत्यु के लिए परमात्मा को भी कष्ट नहीं देना चाहता है। जब हाथ खाली हैं, और आत्मा ही खाली है तो जीने का प्रयोजन ही क्या है...अर्थ ही क्या है...अभिप्राय ही क्या है?

जीवन है अर्थहीन, क्योंकि जीवन से मनुष्य परिचित ही नहीं है। और जिसे उसने जीवन जाना है वह निश्चित ही अर्थहीन है, क्योंकि वह जीवन ही नहीं है। जीवन आंतरिक को खोकर बाह्य की ही दौड़ हो तो निश्चित ही अर्थहीन जाता है। क्योंकि तब बच जाती है वस्तुएं और वस्तुएं। आत्मा को बेचकर जो इन वस्तुओं को इकट्ठा कर लेता है, वह अपने हाथों ही मृत्यु जुटा लेता है।

और बाह्य के विरोध और शत्रुता में जो आंतरिक की ओर चलता है, वह भी पंगु हो जाता है। क्योंकि उसका जीवन भी अंतर्द्वंद्व में शांति और संगीत को खो देता है। और आत्मा तो केवल उन्हें ही मिलती है जो संगीत में और सौंदर्य में जीते हैं। बाह्य की शत्रुता एक भांति कुरूपता पैदा करती है। और बाह्य का विरोध एक भांति की जड़ता ले आता है। अंतद्र्वंद्व अहंकार को तो पुष्ट करता है लेकिन इससे आत्मा उपलब्ध नहीं होती है।

-ओशो
पुस्तक: शिक्षा में क्रांति
प्रवचन नं. 2 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है

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