श्रवण सरल नहीं, बड़ी कला है

राग, द्वेष, मोह और तृष्णा के कारण धर्म-श्रवण नहीं हो पाता। पूर्वाग्रहों के कारण धर्म-श्रवण नहीं हो पाता। भय के कारण धर्म-श्रवण नहीं हो पाता है। एक दिन कुछ उपासक भगवान के चरणों में धर्म-श्रवण के लिए आए। उन्होंने बड़ी प्रार्थना की भगवान से कि आप कुछ कहें, हम दूर से आए हैं। बुद्ध चुप ही रहे। उन्होंने फिर से प्रार्थना की, तो फिर बुद्ध बोले। जब उन्होंने तीन बार प्रार्थना की तो बुद्ध बोले। उनकी प्रार्थना पर अंततः भगवान ने उन्हें उपदेश दिया, लेकिन वे सुने नहीं। दूर से तो आए थे, लेकिन दूर से आने का कोई सुनने का संबंध! शायद दूर से आए थे तो थके-मांदे भी थे। शायद सुनने की क्षमता ही नहीं थी। उनमें से कोई बैठे-बैठे सोने लगा और कोई जम्हाइयां लेने लगा। कोई इधर-उधर देखने लगा। शेष जो सुनते से लगते थे, वे भी सुनते से भर ही लगते थे, उनके भीतर हजार और विचार चल रहे थे। पक्षपात, पूर्वाग्रह, धारणाएं, उनके पर्दे पर पर्दे पड़े थे। उतना ही सुनते थे जितना उनके अनुकूल पड़ रहा था, उतना नहीं सुनते थे जितना अनुकूल नहीं पड़ रहा था। और बुद्धपुरुषों के पास सौ में एकाध ही बात तुम्हारे अनुकूल पड़ती है। बुद्ध कोई पंडित थोड़े ही...